ज़िंदगी में मुझे बहुत सी सीख मिली, कुछ फ्री में और कुछ के लिए घाटा सहना पड़ा है। मगर हर सीख एक तजुर्बा देकर गई, हालांकि तजुर्बों के बाद भी मैंने बहुत सी ग़लतियां फिर से कीं,मगर वो तजुर्बे मेरी ज़िंदगी की कहानी का अंश बनते गए। अभी जिस सीख के बारे में ज़िक्र करने जा रहा हूं उसके लिए मुझे बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ा, मगर तजुर्बा भी उतना ही बड़ा मिला।
4 साल पहले की बात है,तब में यही मान लीजिए 16-18 साल का हुआ करता था, एक अंदाज़ा रखिए उम्र का, क्योंकि यही तीन साल ऐसे होते हैं जिसमें लड़के अपने जिस्म में बदलाव महसूस करते हैं। चेहरा उनकी जवानी की गवाही देने लगता है, आवाज़ के लहजे में एक रुतबा सा आना शुरू हो जाता है। उनका ध्यान अपने बालों की स्टाइल पर, अपने शरीर के हावभाव पर और कपड़ों पर जाने लगता है। गाली गालौच उनको पंडितों के मंत्र की तरह रटी होती हैं, बुरी आदतें उनके अन्दर मुल्ला जी की दाढ़ी की तरह उगनी शुरू हो जाती है। अपने से विपरीत जेंडर को लेकर अलग सा लगाव होना शुरू हो जाता है। दोस्तों से गंदी बातों में ज्यादा मज़ा आता है। ...और अन्य बहुत कुछ जो आपने बेहतर एक्सपीरियंस किया होगा।
...और हां, ये तो कहना भूल ही गया की मां-बाप का कहना न मानना, उनसे झूठ बोलना और अपनी मर्ज़ी पर चलना इसी उम्र से उड़ान लेता है। मैं थोड़ा अलग था, इन सब मामलों में। गाली गालौच और गंदी बातों से घिन आती थी। बालों और कपड़ों के स्टाइल पर इतना ध्यान नहीं था, झूठ बोलता था मगर उसकी संजीदगी का म्यार बहुत कम था और मां-बाप की भी कद्र थी। मगर हां लड़कियों के लिए स्नेह, खुद के अंदर बदलाव महसूस करना ये सब उम्र के साथ तारी हो रहा था। इसके बावजूद लड़कपन वाली शैतानियों ने भी अभी साथ नही छोड़ा था।
उसी समय की बात है, पड़ोस में 4 घर छोड़ कर दिल्ली से एक आफताब आज़मी साहब हमारे मुहल्ले में शिफ्ट हुए थे। मैं आपको बता दूं की मैं मुफ्तीगंज, लखनऊ का निवासी हूं, जबसे पैदा हुआ हूं तब से लखनऊ की आबोहवा को अपनी शोखियों से नवाज़ा है। और मान लीजिये मेरी बात नवाबों का यह शहर अदब और सब्र की बुनियाद पर ही तामीर हुआ है। काहे की मेरी शैतानियों के बाद भी इस शहर ने और यहां के लोगों ने मुझे कभी खिजला कर दुत्कारा नहीं, बल्कि मेरी बहुत सी ग़लतियों पर हंस कर उसे नज़र अंदाज़ किया है। खासकर मुफ्तीगंज के लोगों के बीच में तो मैं, अल्लाह मियां की गाय की तरह हूं जो मन बहलाने के लिए शैतानी तो कर लेती है मगर माँ बाप के हाथ से निकल जाने का तो कोई सवाल ही नहीं।
आफताब आज़मी साहब हालांकि थे आज़मगढ़ के, मगर रोज़ी रोटी के सिलसिले में दिल्ली रहा करते थे। उनकी नई नौकरी लखनऊ के जल विभाग में लगने के कारण उन्हें यहां आना पड़ा। जल विभाग का ऑफिस, ऐशबाग में था। हालांकि उनका घर गोमतीनगर में बन रहा था, मगर उस घर को मुकम्मल खड़ा होने में अभी 1 साल और लगना था।
वह अपनी पत्नी, जिनका नाम मालूम नहीं और अपने बेटे जौहर के साथ शिफ्ट हुए थे। वो थोड़े शायराना मिजाज़ के थे,और थोड़ी बहुत शायरी भी कर लेते थे,इसलिए अब्बू की बहुत बनती थी उनसे। अब्बू खुद एक मुकम्मल शायर थे और बहुत सी महफिलों में बुलाए भी जाते थे। इस दोस्ती की वजह से दोनों घरों में दावत का सिलसिला शुरू हो गया। एेसी ही एक दावत में पता चला की आज़मी साहब की एक बेटी है - मुक्क़दस आज़मी, जो बस इसी महीने दसवीं क्लास दिल्ली से पूरी करके, लखनऊ के माने जाने लॉ मांटियर में आगे के दो साल पढ़ेगी। लॉ मॉटियर को हम लोग अंग्रेजों का स्कूल मानते थे, काहे की ऐसा सुना गया था वहां एडमिशन के लिए अंग्रेजी आनी चाहिए, और अगर थोड़ा कुछ करके एडमिशन हो भी गया तो, बच्चों से अंग्रेजी में बातें करनी पड़ेंगी और हमे तो ढंग से हिंदी भी बोलना नहीं आता था।
खैर, वो दिन आया जब लखनऊ को मुक्क़दस के मुक्क़दस कदम का शरफ हासिल हुआ। आप लोग सोच रहे होंगे मैं उसे मुक़्क़दस ऐसे बुला रहा हूं जैसे वो मेरी कुछ लगती हो। मगर यकीन मानिये उसको जब मैं और जौहर एयरपोर्ट पर लेने गए थे, और मेरी नज़र उस पर पहली बार पड़ी थी, तो आंखों को कुछ ऐसा महसूस हो रहा था की सामने से कोई हुस्न की मलिका सूती कपड़ा ढांपे, बाल खुले छोड़े और नाक पर छोटी सी नथुनी पहने बेखौफ चली आ रही हो।
दिल्ली का बेबाकपन उसके कदमों का तवाफ कर रहा था, काजल उसकी नज़रों पर फूले नहीं समा रहे थे, काले महकते बालों पर काला चश्मा आराम कर रहा था।
चेहरे पर सफ़ेद बरख रंग बर्फ सा महसूस होता था, ऐसा लगता था सूरज की रोशनी इन्हें पिघला न दें। हरी प्रिंटेड कुर्ती और सफ़ेद पायजामा उसके हुस्न में और कशिश पैदा कर रहा था। मुझे और आसपास के लोगों को मालूम नहीं की कौन दीवाना हुआ या कौन नहीं। मगर मैं जिसने अभी अभी दसवीं क्लास में कदम रखा था, वो इश्क के वार से लहूलुहान हो गया था। मन में एक लहर सी दौड़ रही थी जिसकी फिजा में शादी की शहनाइयों का शोर था। जी हां, शादी की शहनाइयों का शोर मेरे कान में बज रहा था। उसका गुज़रना था और उसके हुस्न से, चादर की तरह लिपटी खुशबू लहरा रही थी। मैंने उसे सलाम किया, उसने जवाब हाय से दिया मगर फिर जल्दी से वा अलैकुम सलाम में जवाब को तब्दील किया। मैंने और जौहर ने उससे बैग लिए, और वल्लाह रे किस्मत मेरी, जो बैग मैंने थाम रखा था उसमें से उसे क्रीम का ट्यूब निकलना था, और निकाल कर खड़े होते वक़्त मुझे उसकी बालों की खुशबू ने मुग्ध कर दिया था।
खैर वक़्त गुज़रा, किन्ही दावतों के दौरान हमारी बातचीत की शुरुआत हुई। और वो बातचीत कब उन्स में तब्दील होने लगी मुझे खबर नही हुई। और इस वक़्त तक तो मैं खुद को पहले से बहुत बदल चुका था, कपड़ों को पहनने का ढंग था, बालों में हेयर जैल और बदन से कोलोन महकता था। एक दो बार तो वो मेरी तारीफ भी कर चुकी थी। हमारे बीच जो कुछ भी था इस म्यार पर था कि मुझे लग बैठा इश्क है। उसका बेख़ौफ़ बिना किसी झिझक मेरे कंधो पर हाथ रख देना। बात बात पर बस यूं ही मेरे गाल नोचना, मेरे साथ हज़रतगंज घूमने की ज़िद करना, आप बताइए मुझ जैसा भोलाभाला इंसान क्या समझता?
वक़्त गुज़रा और वो साल बीतते ही वो गोमती नगर के अपने बड़े मकान में चली गई। इसी दौरान उसका लॉ मांटियर में एडमिशन भी हो चुका था। उसके जाने का ग़म था तो, मगर मायूसी नहीं थी क्योंकि उसने मेरे गले में हाथ डालकर बोला था की अगर मिलने नहीं आते रहे तो खैर नहीं तुम्हारी।
उसके गोमतीनगर शिफ्ट होने के बाद मेरी उससे 4-5 बार ही मुलाक़ात हो पाई। वो भी अम्मी-अब्बू से झूठ बोल कर किराये के पैसे लेने पड़े। उस वक़्त कोई जाने का ज़रिया नहीं हुआ करता था, और दूसरों बच्चों की तरह हमे पॉकेट मनी भी नही मिला करती थी।
मगर जोश की धार मेरे इश्क पर सान रख चुकी थी। हमे भी सूझा की गोमतीनगर नहीं जा पाते तो स्कूल जाकर मिलेंगे।
मगर जोश की धार मेरे इश्क पर सान रख चुकी थी। हमे भी सूझा की गोमतीनगर नहीं जा पाते तो स्कूल जाकर मिलेंगे।
फिर मैं एक दिन स्कूल पहुंचा, और मुक्क़दस का इंतज़ार करने लगा, और उसी इंतज़ार के दौरान यह ख्याल आया की अगरचे अम्मी अब्बू की ख्वाहिश पर गौरो फ़िक्र की होती तो क्या पता इस स्कूल के किसी क्लास में आज बैठा होता। मगर आप लोग मान लीजिये इश्क की ताक़त ही कुछ और है।
अभी मैं उसके इंतज़ार में खड़ा सोच रहा था की कैसे उसके सामने आकर सरप्राइज दूं,।इतने में उसने ही मुझे सरप्राइज दे दिया। नहीं नहीं, मेरे सामने आकर नहीं, बल्कि ऐसा सरप्राइज जिसने मुझे एक टक सा कर दिया। वो एक लड़के के साथ बाइक से बहार निकली और फिर आइसक्रीम की ठेले पास जाकर दोनों रुक गए। उनको देखना था और फिर मेरे अन्दर एक तूफ़ान सा उभरा, मेरी जवानी का खून उबला, जिसने मेरे आशिक़ी को छुरा भोंक दिया, और मेरे अदंर छुपे गुस्से को एक भूखे शेर की तरह पिंजड़े से बहार आने दिया। और फिर मैं था जो गुस्से में पागल था, मेरे पैर थे जो उनकी तरफ बेसब्री से दौड़ रहे थे, मेरे हाथ थे जिनमें एक अजब सी ताक़त आ गई थी और वो मुठी से घूंसा बनाये हुए थे, मेरे गाल थे जिनमें गुस्से के मारे गरमाहट महसूस हो रही थी, मेरे दोनों कानों में आस पास की कोई आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती थी और एक मेरी जुबान थी जो अपने ऊपर थूक के बजाये हलक से निकलती गाली का बोज उठाये थी। फिर मैंने उस लड़के को और मुक्क़दास को कुछ बोला, जो मुझे याद नहीं। और जैसा मेरे बोलना ख़तम हुआ, फिर मुझे यही याद है की फिर मेरी जुबान थी जो हलक तक एकदम खुश्क सी महसूस हो रही थी, मेरे कान थे जिनमें अम्मी के कूकर की सीटी की आवाज़ सुनाई दे रही थी, मेरे गाल अब और ज़्यादा गरम महसूस होते थे, मेरे हाथ बेजान से पड़ गए थे, पैरों में एक थरथराहट थी, और मै पूरा का पूरा सुन्न पड़ गया था।
जी हां, लड़की का जब थप्पड़ पड़ता है तो कुछ ऐसा ही आलम होता है।
जी हां, लड़की का जब थप्पड़ पड़ता है तो कुछ ऐसा ही आलम होता है।
शाहरुख़ खान ने ग़लत बोला है की एक तरफ़ा इश्क की ताक़त ही कुछ और होती है| एक थप्पड़ खाइए और ताक़त कमज़ोरी में तब्दील हो जाती है।
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यही थी कहानी मेरी जिससे मुझे ये सीख मिली की ज़रूरी नहीं की कोई भी लड़की जो आपसे घुल मिल गई है वो आपसे प्यार कर बैठी हो, और तजुर्बा ये हुआ की इस बात में कोई दो राय नहीं की दिल्ली की लड़कियां बहुत धाकड़ होती हैं।
आज 4 साल बाद मैं दिल्ली में हूं, और उस दिन के बाद से आजतक मेरे मन में एक ही बात है क्यूपिड (Cupid) लव नहीं होता, स्टुपिड लव होता है।