Friday, 27 July 2018

स्टुपिड लव/ Stupid Love

ज़िंदगी में मुझे बहुत सी सीख मिली, कुछ फ्री में और कुछ के लिए घाटा सहना पड़ा है। मगर हर सीख एक तजुर्बा देकर गई, हालांकि तजुर्बों के बाद भी मैंने बहुत सी ग़लतियां फिर से कीं,मगर वो तजुर्बे मेरी ज़िंदगी की कहानी का अंश बनते गए। अभी जिस सीख के बारे में ज़िक्र करने जा रहा हूं उसके लिए मुझे बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ा, मगर तजुर्बा भी उतना ही बड़ा मिला।
4 साल पहले की बात है,तब में यही मान लीजिए 16-18 साल का हुआ करता था, एक अंदाज़ा रखिए उम्र का, क्योंकि यही तीन साल ऐसे होते हैं जिसमें लड़के अपने जिस्म में बदलाव महसूस करते हैं। चेहरा उनकी जवानी की गवाही देने लगता है, आवाज़ के लहजे में एक रुतबा सा आना शुरू हो जाता है। उनका ध्यान अपने बालों की स्टाइल पर, अपने शरीर के हावभाव पर और कपड़ों पर जाने लगता है। गाली गालौच उनको पंडितों के मंत्र की तरह रटी होती हैं, बुरी आदतें उनके अन्दर मुल्ला जी की दाढ़ी की तरह उगनी शुरू हो जाती है। अपने से विपरीत जेंडर को लेकर अलग सा लगाव होना शुरू हो जाता है। दोस्तों से गंदी बातों में ज्यादा मज़ा आता है। ...और अन्य बहुत कुछ जो आपने बेहतर एक्सपीरियंस किया होगा।
...और हां, ये तो कहना भूल ही गया की मां-बाप का कहना न मानना, उनसे झूठ बोलना और अपनी मर्ज़ी पर चलना इसी उम्र से उड़ान लेता है। मैं थोड़ा अलग था, इन सब मामलों में। गाली गालौच और गंदी बातों से घिन आती थी। बालों और कपड़ों के स्टाइल पर इतना ध्यान नहीं था, झूठ बोलता था मगर उसकी संजीदगी का म्यार बहुत कम था और मां-बाप की भी कद्र थी। मगर हां लड़कियों के लिए स्नेह, खुद के अंदर बदलाव महसूस करना ये सब उम्र के साथ तारी हो रहा था। इसके बावजूद लड़कपन वाली शैतानियों ने भी अभी साथ नही छोड़ा था।
उसी समय की बात है, पड़ोस में 4 घर छोड़ कर दिल्ली से एक आफताब आज़मी साहब हमारे मुहल्ले में शिफ्ट हुए थे। मैं आपको बता दूं की मैं मुफ्तीगंज, लखनऊ का निवासी हूं, जबसे पैदा हुआ हूं तब से लखनऊ की आबोहवा को अपनी शोखियों से नवाज़ा है। और मान लीजिये मेरी बात नवाबों का यह शहर अदब और सब्र की बुनियाद पर ही तामीर हुआ है। काहे की मेरी शैतानियों के बाद भी इस शहर ने और यहां के लोगों ने मुझे कभी खिजला कर दुत्कारा नहीं, बल्कि मेरी बहुत सी ग़लतियों पर हंस कर उसे नज़र अंदाज़ किया है। खासकर मुफ्तीगंज के लोगों के बीच में तो मैं, अल्लाह मियां की गाय की तरह हूं जो मन बहलाने के लिए शैतानी तो कर लेती है मगर माँ बाप के हाथ से निकल जाने का तो कोई सवाल ही नहीं।
आफताब आज़मी साहब हालांकि थे आज़मगढ़ के, मगर रोज़ी रोटी के सिलसिले में दिल्ली रहा करते थे। उनकी नई नौकरी लखनऊ के जल विभाग में लगने के कारण उन्हें यहां आना पड़ा। जल विभाग का ऑफिस, ऐशबाग में था। हालांकि उनका घर गोमतीनगर में बन रहा था, मगर उस घर को मुकम्मल खड़ा होने में अभी 1 साल और लगना था।
वह अपनी पत्नी, जिनका नाम मालूम नहीं और अपने बेटे जौहर के साथ शिफ्ट हुए थे। वो थोड़े शायराना मिजाज़ के थे,और थोड़ी बहुत शायरी भी कर लेते थे,इसलिए अब्बू की बहुत बनती थी उनसे। अब्बू खुद एक मुकम्मल शायर थे और बहुत सी महफिलों में बुलाए भी जाते थे। इस दोस्ती की वजह से दोनों घरों में दावत का सिलसिला शुरू हो गया। एेसी ही एक दावत में पता चला की आज़मी साहब की एक बेटी है - मुक्क़दस आज़मी, जो बस इसी महीने दसवीं क्लास दिल्ली से पूरी करके, लखनऊ के माने जाने लॉ मांटियर में आगे के दो साल पढ़ेगी। लॉ मॉटियर को हम लोग अंग्रेजों का स्कूल मानते थे, काहे की ऐसा सुना गया था वहां एडमिशन के लिए अंग्रेजी आनी चाहिए, और अगर थोड़ा कुछ करके एडमिशन हो भी गया तो, बच्चों से अंग्रेजी में बातें करनी पड़ेंगी और हमे तो ढंग से हिंदी भी बोलना नहीं आता था।
खैर, वो दिन आया जब लखनऊ को मुक्क़दस के मुक्क़दस कदम का शरफ हासिल हुआ। आप लोग सोच रहे होंगे मैं उसे मुक़्क़दस ऐसे बुला रहा हूं जैसे वो मेरी कुछ लगती हो। मगर यकीन मानिये उसको जब मैं और जौहर एयरपोर्ट पर लेने गए थे, और मेरी नज़र उस पर पहली बार पड़ी थी, तो आंखों को कुछ ऐसा महसूस हो रहा था की सामने से कोई हुस्न की मलिका सूती कपड़ा ढांपे, बाल खुले छोड़े और नाक पर छोटी सी नथुनी पहने बेखौफ चली आ रही हो।
दिल्ली का बेबाकपन उसके कदमों का तवाफ कर रहा था, काजल उसकी नज़रों पर फूले नहीं समा रहे थे, काले महकते बालों पर काला चश्मा आराम कर रहा था।
चेहरे पर सफ़ेद बरख रंग बर्फ सा महसूस होता था, ऐसा लगता था सूरज की रोशनी इन्हें पिघला न दें। हरी प्रिंटेड कुर्ती और सफ़ेद पायजामा उसके हुस्न में और कशिश पैदा कर रहा था। मुझे और आसपास के लोगों को मालूम नहीं की कौन दीवाना हुआ या कौन नहीं। मगर मैं जिसने अभी अभी दसवीं क्लास में कदम रखा था, वो इश्क के वार से लहूलुहान हो गया था। मन में एक लहर सी दौड़ रही थी जिसकी फिजा में शादी की शहनाइयों का शोर था। जी हां, शादी की शहनाइयों का शोर मेरे कान में बज रहा था। उसका गुज़रना था और उसके हुस्न से, चादर की तरह लिपटी खुशबू लहरा रही थी। मैंने उसे सलाम किया, उसने जवाब हाय से दिया मगर फिर जल्दी से वा अलैकुम सलाम में जवाब को तब्दील किया। मैंने और जौहर ने उससे बैग लिए, और वल्लाह रे किस्मत मेरी, जो बैग मैंने थाम रखा था उसमें से उसे क्रीम का ट्यूब निकलना था, और निकाल कर खड़े होते वक़्त मुझे उसकी बालों की खुशबू ने मुग्ध कर दिया था।
खैर वक़्त गुज़रा, किन्ही दावतों के दौरान हमारी बातचीत की शुरुआत हुई। और वो बातचीत कब उन्स में तब्दील होने लगी मुझे खबर नही हुई। और इस वक़्त तक तो मैं खुद को पहले से बहुत बदल चुका था, कपड़ों को पहनने का ढंग था, बालों में हेयर जैल और बदन से कोलोन महकता था। एक दो बार तो वो मेरी तारीफ भी कर चुकी थी। हमारे बीच जो कुछ भी था इस म्यार पर था कि मुझे लग बैठा इश्क है। उसका बेख़ौफ़ बिना किसी झिझक मेरे कंधो पर हाथ रख देना। बात बात पर बस यूं ही मेरे गाल नोचना, मेरे साथ हज़रतगंज घूमने की ज़िद करना, आप बताइए मुझ जैसा भोलाभाला इंसान क्या समझता?
वक़्त गुज़रा और वो साल बीतते ही वो गोमती नगर के अपने बड़े मकान में चली गई। इसी दौरान उसका लॉ मांटियर में एडमिशन भी हो चुका था। उसके जाने का ग़म था तो, मगर मायूसी नहीं थी क्योंकि उसने मेरे गले में हाथ डालकर बोला था की अगर मिलने नहीं आते रहे तो खैर नहीं तुम्हारी।
उसके गोमतीनगर शिफ्ट होने के बाद मेरी उससे 4-5 बार ही मुलाक़ात हो पाई। वो भी अम्मी-अब्बू से झूठ बोल कर किराये के पैसे लेने पड़े। उस वक़्त कोई जाने का ज़रिया नहीं हुआ करता था, और दूसरों बच्चों की तरह हमे पॉकेट मनी भी नही मिला करती थी।
मगर जोश की धार मेरे इश्क पर सान रख चुकी थी। हमे भी सूझा की गोमतीनगर नहीं जा पाते तो स्कूल जाकर मिलेंगे।
फिर मैं एक दिन स्कूल पहुंचा, और मुक्क़दस का इंतज़ार करने लगा, और उसी इंतज़ार के दौरान यह ख्याल आया की अगरचे अम्मी अब्बू की ख्वाहिश पर गौरो फ़िक्र की होती तो क्या पता इस स्कूल के किसी क्लास में आज बैठा होता। मगर आप लोग मान लीजिये इश्क की ताक़त ही कुछ और है।
अभी मैं उसके इंतज़ार में खड़ा सोच रहा था की कैसे उसके सामने आकर सरप्राइज दूं,।इतने में उसने ही मुझे सरप्राइज दे दिया। नहीं नहीं, मेरे सामने आकर नहीं, बल्कि ऐसा सरप्राइज जिसने मुझे एक टक सा कर दिया। वो एक लड़के के साथ बाइक से बहार निकली और फिर आइसक्रीम की ठेले पास जाकर दोनों रुक गए। उनको देखना था और फिर मेरे अन्दर एक तूफ़ान सा उभरा, मेरी जवानी का खून उबला, जिसने मेरे आशिक़ी को छुरा भोंक दिया, और मेरे अदंर छुपे गुस्से को एक भूखे शेर की तरह पिंजड़े से बहार आने दिया। और फिर मैं था जो गुस्से में पागल था, मेरे पैर थे जो उनकी तरफ बेसब्री से दौड़ रहे थे, मेरे हाथ थे जिनमें एक अजब सी ताक़त आ गई थी और वो मुठी से घूंसा बनाये हुए थे, मेरे गाल थे जिनमें गुस्से के मारे गरमाहट महसूस हो रही थी, मेरे दोनों कानों में आस पास की कोई आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती थी और एक मेरी जुबान थी जो अपने ऊपर थूक के बजाये हलक से निकलती गाली का बोज उठाये थी। फिर मैंने उस लड़के को और मुक्क़दास को कुछ बोला, जो मुझे याद नहीं। और जैसा मेरे बोलना ख़तम हुआ, फिर मुझे यही याद है की फिर मेरी जुबान थी जो हलक तक एकदम खुश्क सी महसूस हो रही थी, मेरे कान थे जिनमें अम्मी के कूकर की सीटी की आवाज़ सुनाई दे रही थी, मेरे गाल अब और ज़्यादा गरम महसूस होते थे, मेरे हाथ बेजान से पड़ गए थे, पैरों में एक थरथराहट थी, और मै पूरा का पूरा सुन्न पड़ गया था।
जी हां, लड़की का जब थप्पड़ पड़ता है तो कुछ ऐसा ही आलम होता है।
शाहरुख़ खान ने ग़लत बोला है की एक तरफ़ा इश्क की ताक़त ही कुछ और होती है| एक थप्पड़ खाइए और ताक़त कमज़ोरी में तब्दील हो जाती है।
............................
यही थी कहानी मेरी जिससे मुझे ये सीख मिली की ज़रूरी नहीं की कोई भी लड़की जो आपसे घुल मिल गई है वो आपसे प्यार कर बैठी हो, और तजुर्बा ये हुआ की इस बात में कोई दो राय नहीं की दिल्ली की लड़कियां बहुत धाकड़ होती हैं।
आज 4 साल बाद मैं दिल्ली में हूं, और उस दिन के बाद से आजतक मेरे मन में एक ही बात है क्यूपिड (Cupid) लव नहीं होता, स्टुपिड लव होता है।

Wednesday, 24 January 2018

Luxury




Thank you, Aditya Kashyap, for this picture.


Luxury and its glittering
spangling, while teetering
into my eyes.

I look at it, while it pokes
at me, killing the leftover hopes
of the world, I believe in.

Pushing me to believe this is the only way to breed,
living in the vicinity of treasure and greed,
Being powerful and to lead,
You're for guiding humans to tread.

I roll my eyes
immediately, before this feel surges and rises
into me.

And then I think of the world I believe in,
The world full of glittering but the
natural one.

Wednesday, 6 December 2017

Where My Soul Lies

“My soul is from elsewhere, I’m sure of that,
and I intend to end up there.”
(An excerpt from,” Who says words with my mouth?”)
- Jelaluddin Rumi

Where My Soul Lies
It was all messed up. My work, Emma, home and every other thing.  Even my car had started conspiring against me. I couldn’t stand it anymore. I was like a dead corpse who was left stranded near the graveyard. So I decided it’s better to leave. Better to leave a habitat where you find no peace.

I am a mechanical engineer. I have lived in Boston for long. My mother and father were Indians. They both eloped from Punjab in 1985 when they were around 25 and settled here on Pemberton Road. Both had well-off families back there in Punjab, and they are highly educated. So, settling here away from the family and finding jobs was no big deal for them. They, officially, got married in 1987 as Sukhvinder Singh and Harshdeep Kaur. Both got the green card by 1989 and later in May of the next year I was born. They gave me an American name Nicholas (Nick). Living in America, having an American name, wearing American clothes, eating American food (beef included), and taking the oath to American allegiance, it never dawned on me that I had Indian roots, until the age of10. Then I started realizing that I am growing different from other students in the school and that when my parents fight, they spoke some different language which I later got to know was Punjabi.

My parents got divorced by 2002; it was termed as “mutual”. Both of them agreed to part ways as they had each found a new partner for themselves. Court decided that since the mother is working, she would take custody of the lone minor boy. And from 2002 to 2009 I had seen my mother changing many partners, marrying none. Every time she had a fight with any of her boyfriends, she would come banging into my room and cry for some time. And then when done with all the tears, she would make me sit near her and tell me about the place she had lived. At the age of 16, I got to know where my parents actually lived before settling here. She had said Kila Raipur near Ludhiana. She described her home stretched in the area of 8000 sq. meters, with an open veranda in the middle of the house. 6 families were living in the home. She also said that like hers, dad too had the house of same architecture. I would have rather called it a mansion. She described the blooming mustard field outside the house, with the scarecrow in the middle, a pond nearby, rough roads, bullock carts and everything which an American country-side has.
 By the age of 19, when I was about to graduate, I had seen DDLJ, Namastey London, Veer- Zara and many other movies giving me a somewhat clearer picture of Punjab. And I realized there was much more to it than any countryside in America. Later on, I realized that there, in Kila Raipur, prevailed something which had led to an upsurge of emotions in me. They were weird and wonderful emotions of love, refuge, devotion, and patriotism for some other country, some other land.

As time passed, I started to see a recurring dream of an open veranda, a big house and me standing in the middle of Mustard Field, with cool breeze billowing away from the resting mustard plant, kissing my cheeks, muttering my name in a beautiful voice. At the age of 22, with the start of my career as an intern with Ford Automobiles, I already had as many relationships like my mother. But, Emma had been the best of all. We were in the same batch of Masters, she was pursuing Electrical engineering and I had chosen Mechanical. We had dated for 5 months before finally agreeing to take our relationship forward. But as time began to play its course, she started behaving in the American way. Casual relationships, flirting with other guys, hangover, and every other thing. I decided to make her understand what I wanted but she was adamant that she didn’t want to commit something. I was left broken.  I couldn’t even return to my mother, I had left her after my masters. She had started living with a man who was violent with me. And I didn’t know where my father was. In all this mess, I was fired off from the post of Head Supervisor as they found me inefficient for work in the recent times.

A week before finally making this decision, I again had a vision of the same mustard field, same picturesque location but this time wind had something new for me, a smell, which gave the feeling of oneness, a feeling of intimacy, love and bond. Also, it bought a yellow translucent strip of cloth, kind of scarf flapping in the air. The cloth got tucked to my face, just like any other Bollywood film. It was then, the next day, I decided to move to the place, which had been in my dreams for long. To the place where my parents were born. The place to which, I suddenly started feeling, I must return. The place which I feel is the refuge of my soul.

Sitting here in the airport lounge, waiting for my flight to Delhi. All the flashbacks from my life in Boston go rolling like a film reel. I realize I will be having no job once I land in India. All I would have are some savings left with me.
I have to take a taxi and travel next 6 hours before I reach Ludhiana. I had found about an automobile company named Escorts there, where perhaps seeing my portfolio they would employ me. Whatever it is now, I can clearly hear someone calling me from that mustard field and I must end up there.



                                           ……………………………………………………………

                                                            In Kila Raipur, Same Day

Gurdeep Singh: Oo Biji, sunti ho??
(Where are you mother??)
Manpreet Kaur: Ke ho gya Gurdeep, Chilata kyun hai
(What has happened Gurdeep, why are you wailing like this?)
Gurdeep: Biji, aey rishta bhi na-manzoor ho gaya Simran da.
(These ones too, didn’t say yes for Simran.)

Manpreet Kaur: Fikr na Karin Gurdeepe, Apni Simran ke liye koi changa villayti munda hi haan kare gya si. Mera dil kehanda hai. Menne hi odhani hai Simran de sar wich peeli chunari, mehndi wale din. Tu Fikar na Karin.
(You don’t worry Gurdeep; I will consent for no less than some handsome foreigner for Simran. My instincts tell me, it will be me who’ll put on her the yellow chunari (translucent scarf) on the day of her mehndi.)

Tuesday, 17 October 2017

Nigaar- Short Story

Let yourself be silently drawn by the stronger pull of what you really love.
- Rumi

Nigaar

“…. I have lived my life to the fullest dear, now it’s your turn. Never hesitate to open your wings. Fly.”

I still remember these words which she said in her last days. My Grandma preferred that people should call her by her pen-name, Nigaar and not being called as Dadi or amma or anything else which will append her name to aging life. Her name was Radhika Chitranjan. Dadu had given her the name Nigaar, after reading her poems which were usually in Hindustani Language. Nigaar, an Urdu word, literally has two meanings, oneof them is a painting and second, someone beloved. Dadu used to tell her, Radhika whenever I read your poems, it feels like every single word strikes like a paintbrush on the canvas and I imagine a painting being made in my mind.

Nigaar had a wander-lust at the time when the people were barely familiar with it in India, especially here in Bhopal. The word became a cult after the year 2000. Dadu himself was an avid traveler. Due to his government job and passion for photography, he always had time and reasons to pack up his bag, hold the hand of his beloved Nigaar and expedite themselves to another road, another town or city and many times to another time zone. Nigaar had met innumerable people, tasted different sorts of food, fallen in love with Kashmir countless times, had thousands of experience to share, kissed Dadu in front of Eiffel tower (on cheeks though), acquired an adrenaline rush for skydiving at 55 (unfortunately 45 was the limit) and she was always ready for a long drive till she finally got bedridden due to pneumonia and then died later.

I never understand when people of my parents' age say that they never had the same opportunity as today’s generation has. I want them to see Nigaar once, how free she was, how she never missed an opportunity to experience something new and exciting, how she lived a life she always dreamt of. Today, when I want to hop into the world of writing, why the fear of not being approved of is making me not to run for it, when I want to travel the world why the fears of life are not letting me start a new journey and when I want to be loved by someone why the fear of being cheated is not allowing the relationship to grow. Why can’t I be like Nigaar? She had once said, “Varnika, remember two things in your life: never ever at any stage of life let yourself sway away in the tempest of fear and despair and never shy away from falling in arms of what you love.” Today, I see the prestigious awards she has been honored with, for her works in poetry and I remember one of her prose:

हिम्मत ए ज़नाना मात देती है हिम्मत ए मर्दां को,
कौन कोख में लिए चलता है वाजूद ए इंसान।


Meaning, “A Courageous woman is no less than a courageous man, who has guts to create life in their womb?”


But, why am I afraid to live a life like Nigaar. Why can’t I just open my wings and fly? What did Nigaar had that I don’t?

Thursday, 28 September 2017

The Natural Beauty





Beauty is black, Beauty is white,
Beauty is everything you see with eyes open wide,
Beauty is dim, Beauty is bright,
Beauty can sway you away in the tide.


Beauty is in eyes, Beauty is in smile,
Beauty can make you stand still for a while.


Beauty has no simile, Beauty can be a metaphor,
Beauty has elegance and modesty you may swoon for.


Beauty resides in the heart, Beauty rises with the birth,
Beauty is nothing but nature living on earth.


Tuesday, 29 August 2017

Look Up!! But why??

How will you react when your grade hungry father, someday, says to you- "My son, it's okay if you don't study. I have no problem if you flunk in any of your exams or can also, whenever you will stop studying and going to school". You'll definitely glance at him with curiosity, thinking what has happened to him. There might be some chances of you thinking for different reasons in the context of which the above statement was ordered to you. This is what has happened to me after seeing the latest TV commercial by Vodafone which they carried out on Friendship day. The commercial says, "#LookUp from your phone to and don't let your friendship fade away."


Even-though, I personally loved the commercial, but the first word that crossed my mind, after seeing it was "Irony". A mobile carrier company, that gains all of its profit by providing its customer with mobile networks. And recently had got a tough competition from its counterpart in India (Jio- reliance networks), is suddenly telling you to look up from your mobile Phone and save your friendship. Why? What's the reason behind it??

The detective inside me instantly awake and gave a long thought to it. And this is what I came up with ( personal thoughts that shouldn't be taken personally :) ), the company doesn't want you to stop using your phone (yes, yes I know its quite obvious) but also doesn't want you to ignore your friends. Who will be talking to them when they'll be away from you. Who will be telling them about the breakups, patch-ups, crushes and other gossips? And yes, 12'o clock wishes shouldn't be over shadowed by "HBD". Of course, there should be long talks on birthdays. That's why this advertisement has a female protagonist.

So, the company that mints lakhs and crores every second, doesn't want your friendship to be limited till texting and messaging. It should stay same as it was before Whatsapp and Instagram, "On Calls". And yes they have also told you somewhere between the lines, in this busy times you're not every day going to meet your friend. So, when you meet, talk to them so they can talk to you later on phone.





Monday, 28 March 2016

Bleeding Blue

The last shot by MS Dhoni, the skipper of Indian Cricket team, cutting its way to the boundary line, and it’s a four, India won from Australia, knocking them out of ICC World Twenty20 league and pushing themselves to semi-finals. Almost every part of India, on Sunday, would have glued their eyes to the Television screen, applauding each time Virat Kohli had pulled a shot across the boundary. And, when finally our Captain Cool pulled that winning shot, the whole country(wo)men (in case you say, I follow a sexist ideology), had the whale of the time (considering cricket as a religion in our country). Do you know there are few more entities, even after not being of Indian origin, were celebrating along with you for this win?


Who are they? And why are they celebrating with you?


You all know them very well if you don’t teeter among channels when there is a break. Yes, the commercial brands partnered with ICC T20 league would have buzzed with cheers after this win.


But why?


The reason being us, the audience. The ads we see in the breaks help the brands commercially associated with the event to position themselves in the mind of the audience. You might find some ads quirky, and some irritating but their repetitiveness makes you remember the brand name and logo.  Brands sometimes make use of the topical subject related to a specific event in order to connect and create awareness about them. And that is why brand cheers with you when the ball finds its way out of the boundary and hold their breath when our team is on the brink to lose.

Don’t you see your importance..:)